Sunday, September 27, 2009

meri dhoti meri chhavi

ओ3म्
मेरी धोती, मेरी छवि
ब्रिगेडियर चितरंजन सावंत, वी.एस.एम
तिब्बत की राजधानी ल्हासा में शाम के समय ऐसे ही घूम रहा था । बड़ी बड़ी दुकानो के साथ पटरी बाज़ार पर सजाई हुई चीज़ो को देख कर न खरीदने की इच्छा होते हुए भी मोल भाव कर रहा था। एक मार्के की बात यह सामने आई कि पीतल और तांबे की अधिकांश वस्तुए और कुछ चमकीले रंग बिरंगे छोटे छोटे पत्थर के टुकड़े तिब्बती व्यापारी भारत के ही बाज़ारो से लाए थे। एक व्यापारी ने तो मेरी वेष भूषा और रंग रुप देख कर कहा कि यह सब चीज़े तो आपको अपने ही देश मे सस्ती मिलेंगी। मुझे यह भी देख और सुन कर सुखद आश्चर्य हुआ कि भारतीय वस्तुओ को वहां बेचने वाले तिब्बती पुरुष, महिलाएं और बच्चे काम चलाऊ हिंदी जानते हैं। फिर भी वो मुझसे खुल कर बात करने से कतराते रहे और बाद में एक व्यक्ति ने बताया कि जब वो विदेशियों से बात करते हैं तो चीन की पुलिस उन पर निगाह रखती है।
बाज़ार से ज़रा हट कर, दलाई लामा के पुराने महल और कार्यालय, पोताला पैलेस की ओर जा रहा था तो एक तिब्बती व्यक्ति मेरे निकट आया और मेरी धोती का एक छोर खींचने लगा। मैने चीनी भाषा मे उससे कहा कि मेरे भाई तुम यह क्या कर रहे हो। उसने भी चीनी भाषा मे ही उत्तर दिया कि श्रीमान मै यह जानना चाहता हूं कि यह कपड़ा जो आप लपेटे हुए हैं इसकी लंबाई कितनी है। यह भी कि इसका नाम क्या है। मैने उत्तर देकर उसे संतुष्ट किया कि इसे धोती कहते हैं और इसकी लंबाई लगभग पांच मीटर है। यूं मेरी वेषभूषा यानि धोती और कुर्ता भी विदेशो मे विदेशो मे आकर्षण का केंद्र रहते हैं। इससे मेरी एक अलग पहचान बन जाती है और भारतीय वस्त्रो का एक तरह से हल्का सा प्रचार भी हो जाता है।
धोती वाले ब्रिगेडियर साहब
भारतीय जन मानस में एक सैन्य अधिकारी की छवि अंग्रेज़ो की छवि से भिन्न नही रही है। आम आदमी यह समझता है कि सेना के ब्रिगेडियर जैसे उच्च अधिकारी सदैव सूटेड बूटेड रहते हैं उनकी बड़ी बड़ी मूछे होती हैं – हाथ मे हल्का का केन (डंडा) रहता है और बोलते केवल अंग्रेज़ी हैं। यद्यपि मैने स्वयं तीन दशको से अधिक का समय सैन्य सेवा मे बिताया किंतु अंग्रेज़ो की छवि पाने की कभी कोई अभिलाषा मेरे मन में नहीं उभरी। इसका मुख्य कारण यह रहा है कि आर्य समाज की पृष्ट भूमि और हिंदी से प्रेम होने की वजह से मैने कभी अंग्रेज़ियत को अपने जीवन मे पास नही फटकने दिया। अपने वेषभूषा और भाषा के कारण कभी कभी अपरिचित लोग यह समझ ही नही पाते कि मैं एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी रहा हूं और सेवानिवृत होने के बाद देश विदेश की यात्रा मे धोती कुर्ता ही पहनता रहा हूं। इससे कभी कभी हल्की सी कठिनाई भी हुई किंतु हर कठिनाई और समस्या का समाधान स्वत: मिलता भी रहा ।
जब हॉंग कॉंग को ब्रिटेश शासन चीन शासन को हस्तांतरित करने वाला था तो मुझे आमंत्रित किया गया कि मैं हॉंग कॉंग जाकर वहां की वस्तुस्थिति पर एक टी वी डॉक्युमैंट्री बनाऊं । हॉंग कॉंग के हवाई अड्डे पर जैसे ही मैं बाहर आया तो अपनी अगवानी के लिए किसी को भी नही पाया। हालांकि मैं चीनी भाषा (मैंडरिन) बोल लेता हूं किंतु हॉंग कॉंग कि अधिकांश निवासी कैंटनीज़ भाषा बोलते हैं। फिर उच्चारण का भेद भी हो ही जाता है। समस्या विकट थी। अपने सामान के साथ निकास द्वार के सामने जब मैने चार पांच चक्कर लगाए तब एक चीन के अधिकारी मेरे पास आए और बोले क्या आप हीं ब्रिगेडियर सावंत हैं जो टी वी डॉक्यूमैंट्री बनाने आएं हैं। मैने कहा जी हां। उन्होने क्षमा याचना की और कहा कि थोड़ी देर से वो मुझे देख रहे थे लेकिन तय नही कर पा रहे थे कि मेरी वेषभूषा और सामान्य सैन्य अधिकारी की वेषभूषा मे तालमेल क्यो नहीं है।मैने उन्हे इतिहास बताया तो वो संतुष्ट हुए। मैने इश्वर को भी धन्यवाद दिया कि दुरित दूर हुआ।
ऐसी ही एक घटना, स्वदेश में जालंधर रेलवे स्टेशन पर भी हुई। डी ए वी कॉलेज ने मुझे वेद प्रवचन के लिए आमंत्रित किया था और जब मैं शताब्दी से प्लेटफॉर्म पर उतरा तो वहां पर भी किसी ने मेरी अगवानी नही की। दो तीन मिनट बीत जाने के बाद मेरे कानो में आवाज़ आई, एक सूटेड बूटेड सज्जन किसी से मोबाईल पर कह रहे थे कि गाड़ी तो आ गई लेकिन ब्रिगेडियर साहब नही आए। तो मैने स्वंय उनसे पूछा कि क्या आप ब्रिगेडियर सावंत की राह देख रहे हैं। उनके हां कहने पर मैने अपना परिचय दिया और फिर वो एक बड़ी सी कार में उस होटल ले गए जहां मुझे ठहरना था। उन्होने मुझे बताया कि पंजाब मे धोती पहनने वालो को ढीला ढाला आदमी माना जाता है। मझे भी याद आया कि आर्य समाज के इतिहास में यह चर्चा आई है कि पंडित लेखराम जी जो पेशावर निवासी थी उन्होने महात्मा मुंशी राम (स्वामी श्रध्दानंद) से एक बार कहा – लाला जी आप यह धोती क्या पहनते हैं यह तो यू पी वाले ढीले ढाले लोग पहनते हैं हम पंजाबियो को नही पहनना चाहिए। इस टिप्पड़ी के बावजूद महात्मा मुंशीराम जी ने अपनी वेषभूषा नही बदली। इस घटना से मुझे भी मानसिक बल मिला कि मैं धोती पहनना जारी रखूं।
वेद प्रचार के सिलसिले में जब मैं इंगलैंड गया तो महाशय गोपाल चंद्र, जो मेरी अगवानी के लिए आए थे – ने मुझसे कहा कि मैं भाग्यशाली हूं। आखों ही आखों मे मैने प्रश्न किया कि क्यो तो उन्होने कहा कि आप धोती कुर्ता पहने हुए हैं और आज इक्कीसवीं शताब्दी इंगलैंड मे कोई अंग्रेज़ इस पर आपत्ति नही करेगा। लगभग चार दशक पहले की अपनी कथा उन्होने सुनाई कि उस समय बिना सूट बूट पहने कोई व्यक्ति सड़क पर चल नही सकता था। संभ्वत अंग्रेज़ो का यह मानना था कि अगर इंगलैंड में रहना है तो उन्ही की तरह की वेषभूषा होनी ज़रूरी है और उन्ही की भाषा बोलनी है। यह जानकर मुझे बड़ा संतोष हुआ कि अब वेषभूषा और भाषा पर कोई प्रतिबंध नही है और धोती पहनकर मैं पूरे इंगलैंड मे घूम सकता हूं। यूं मेरे पास ऐसे भी न सूट था न बूट ।
भारत के काले अंग्रेज़
यह विचित्र बात है कि इंगलैंड में तो मैं धोती कुर्ता पहन कर ब्रिटेश समराज्ञी क्वीन इलिज़ेबेथ द्वितिय के महल बकिंघम पैलेस में घूम आया किंतु अपने ही देश भारत में अनेक ऐसे संस्थान और क्लब हैं जहां धोती कुर्ता पहन कर जाने पर प्रतिबंध है। सशस्त्र सेनाओ के अफसर मैस और क्लब, जिमखाना क्लब और रॉयल यॉट क्लब आदि ऐसे भारत भूमि पर अग्रेज़ी संस्कृति के पोशक हैं जो सूट बूट और टाई के अलावा और कोई पहनावा पहचानते ही नहीं। यह सांसकृतिक विडंबना है। मेरे विचार में अब समय आ गया है कि जब अंग्रेज़ संस्कृति पोशक संस्थानो के विरुध्द अभियान चलाकर उन्हे भारत भूमि और भारतीय संस्कृति से प्रेम का पाठ पढ़ाना आवश्यक हो गया है। संभवत युवा वर्ग इस दिशा मे आगे आने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। यदि उनके पाठ्यक्रम में स्वदेश प्रेम का पुट दिया जा सके।
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ब्रिगेडियर चितरंजन सावंत, वी एस एम
उपवन
609, सेक्टर 29
अरुण विहार, नोएडा - 201303. भारत
ईमेल : sawantg.chitranjan@gmail.com

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