Monday, September 7, 2009

MAHARISHI DAYANAND : a SOURCE OF iNSPIRATION

ओ3म्
महर्षि दयानंद – स्वतंत्रता संग्राम के प्रेरणा पुंज
ब्रिगेडियर चितरंजन सावंत, विशिष्ट सेवा मेडल

इतिहासकार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ जून 1857 से मानते आएं है और इसकी शुरुआत का स्थान मेरठ माना जाता रहा है। इस स्वाधीनता संग्राम मे जो अंग्रेज़ो के विरुद्ध भारतीयो ने लड़ा मे केवल शस्त्र के उपयोग की चर्चा होती है और विभिन्न स्थानों पर अंग्रेज़ो और भारतीयो के बीच हुई लड़ाईयों का ज़िक्र कर के हम अध्याय की इति कर देते हैं। आवश्यकता है गहराई मे जाने की और यह जानने की कि शस्त्र के साथ साथ हमारे शास्त्रो ने क्या भूमिका निभाई । हमे यह मानकर चलना होगा कि मनुष्य का शरीर कोई कर्म तभी करता है जब उसे मस्तिष्क और आत्मा से निर्देश मिलता है। यह निर्देश तभी जारी किया जा सकता है जब इसके पीछे कोई प्रेरणा पुंज हो।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में, इतिहासकार श्री पट्टाभि सीतारमैय्या ने स्थान स्थान पर स्पष्ट शब्दो मे लिखा है कि स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियो में एक बहुत बड़ी संख्या वैदिक धर्मियों की थी । उनका संगठित रूप जो सामने आया वो आर्य समाज के नाम से जाना जाता है। यहीं हम उन प्रमुख आर्यों की चर्चा करें जो स्वतंत्रता संग्राम मे पहली पंक्ति मे लड़े। महात्मा मुंशी राम जो बाद मे स्वामी श्रद्धानंद कहलाए, लाला लाजपत राय जिन्हे अंग्रेज़ो ने भारत से निष्कासित कर दिया था, भाई परमानंद, लाला हर दयाल और सरदार भगत सिंह कुछ ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्हे देश कभी भुला नही सकता। नई पीढ़ी के पाठको के लिए यह चर्चा करना आवश्यक है कि आर्य समाज लाहौर के सदस्यो और पदाधिकारियों मे सिखो की संख्या कम नही थी। मैं इन प्रमुख नामो की चर्चा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यह सभी महानुभाव समर्पित आर्य समाजी थे जिन्होने स्वाधीनता संग्राम मे अंग्रेज़ो से लड़ने की प्रेरणा सन्यासी-सुधारक महर्षि दयानंद से पाई।

महर्षि दयानंद के स्वतंत्रता संबंधी विचार

महर्षि दयानंद द्वारा लिखी गई प्रमुख पुस्तको मे है सत्यार्थ प्रकाश । महर्षि ने पहली बार 1874 में वो क्रांतिकारी पुस्तक लिखी और उसका संशोधित संस्करण 1883 में अपने निधन से पूर्व तैयार कर लिया था. उन्नीसवी शताब्दी के उस दौर मे महर्षि दयानंद जब वैदिक धर्म का प्रचार कर रहे थे तो न केवल पूरे भारत मे अपितु विश्व के अधिकांश भाग में अंग्रेज़ो का वर्चस्व था। सम्राज्ञी मलका विक्टोरिया लंदन मे राजगद्दी पर आसीन थीं और उनकी ममतामई छवि भारत के गांव गावं में घर घर जानी और पहचानी जाती थी । यह कहा जाता था कि अंग्रेज़ो से अच्छा राज्य किसी का नही हो सकता था । यह विचार धारा अंग्रेज़ परस्त तत्वो ने प्रचारित प्रसारित किया था जिससे भारतीयों के मन मस्तिष्क मे स्वतंत्रता की बात कभी आए ही नही। इसका विरोध करने वालों को मानसिक ताड़ना और शारीरिक दंड इस मात्रा मे दिया जाता था कि वो कभी स्वाधीनता की बात सोच भी न सकें।

महर्षि दयानंद सरस्वती ने सन्यासी, धर्म एवम समाज सुधारक के रुप मे यह अपना कर्तव्य समझा कि स्वदेश भारत को विदेशी दासता की बेड़ियों से मुक्त कराया जाए। ऋषिवर जैसा मनोवैज्ञानिक और विचारों की स्वाधीनता का सेनानी इस बात को भली भांति जानते थे कि अंग्रेज़ो के वैचारिक प्रचार को यदि कोई चीज़ काट सकती है तो वो है भारतीयो की स्वाधीनता पाने की विचारधारा। इसके लिए यह भी आवश्यक था कि मलका विक्टोरिया की ममतामयी छवि से उपर उठ कर भारतीय नर नारी स्वतंत्र देश के विचार को सर्वोत्तम मानें। महर्षि दयानंद ने यह बीड़ा स्वयं उठाया तथा अपने लेखन और प्रवचन में इसका प्रतिपादन किया। इस तथ्य का प्रमाण है महान ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश।

सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम सम्मुलास मे महर्षि दयानंद ने उपरोक्त विचार धारा की पुष्टि करते हुए लिखा-

कोई कितना ही करे परंतु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है...मत मतातंर के आग्रह रहित अपने और पराए का पक्षपात शून्य, प्रजा पर माता पिता समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी – विदेशियो का राज्य पूर्ण सुखदायक नही है।

उन्नीसवीं शताब्दी मे भारत में अंग्रेज़ो का शासन महर्षि दयानंद के उपरोक्त विचारो को क्रांतिकारी मानता था और ब्रिटिश सामराज्य के विरुद्ध विप्लव और विद्रोह की संज्ञा इसे देता था। यह निडर सन्यासी का ही आत्मविश्वास और आत्मबल था जो अकेले ब्रिटिश सामराज्य के बवंडर को झेल सकता था। यही नहीं, स्थान स्थान पर महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना की, अनाथालय खोले और संस्कृत पाठशालाए भी खोलीं जहां विद्यार्थियों और आर्य सभासदों को सत्यार्थ प्रकाश में लिखी विचार धारा से बारम्बार प्रभावित किया जाता था। इस वैचारिक स्वतंत्रता अभियान का प्रभाव नई पीढ़ी पर पड़ना स्वाभाविक था। लाला लाजपत राय ने जब जब अंग्रेज़ो के विरुद्ध कार्यवाई की और उनके बड़े प्रशासकों की योजनाओं को भारत विरोधी बताया तो यह सदैव कहा कि यह प्रेरणा उन्हे अपने धर्म पिता महर्षि दयानंद से मिली। लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध करते हुए अपनी ढलती आयु मे भी लाला लाजपत राय ने अंग्रेज़ों की लाठियां सहीं और उन चोटों की वजह से उनका प्राणांत हुआ। भारत की स्वतंत्रता की वेदी पर लाला लाजपत राय का बलिदान उल्लेखनीय है।

स्वतंत्रता संग्राम मे आर्य गुरुकुल

महात्मा मुशींराम ने महर्षि दयानंद के स्वाधीनता संबंधी विचारो से प्रेरणा लेते हुए ऐसी शिक्षा संस्था शुरु की जहां किशोरो और युवा वर्ग मे वैचारिक स्वाधीनता प्रमुख हो। इसके लिए आवश्यक था लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा से अलग हट कर वैदिक शिक्षा पद्धति को लागू करना। गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार ने यह कार्य भलि भातिं और सुचारु रुप से किया। हर नया ब्रह्मचारी अपने व्यक्तित्व का विकास तो करता ही थी किंतु साथ साथ देश को स्वाधीन करने के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को भी तत्पर रहता था। गुरुकुल के अनेक विद्यार्थी स्वतंत्रता संग्राम मे कूद पड़े।

ब्रिटिश शासन के गुप्तचर विभाग ने पहले लखनऊ फिर दिल्ली तक यह रिपोर्ट भेजी कि गुरूकुल कांगड़ी मे तो बम बनाए जाते हैं और क्रांतिकारी तैयार किए जाते हैं जो ब्रिटिश सामराज्य की जड़ें भारत से उखाड़ने के लिए अपने जीवन का बलिदान देने के लिए भी तैयार हैं। यूपी यानि यूनाइटेड प्रोविंसेज़ के गवर्नर सर जेम्स मेस्टन, लंदन मे ब्रिटेश संसद मे प्रतिपक्ष नेता सर रैमज़े मैक़डॉनल्ड समय समय पर स्वयं गुरुकुल गए । उन्होने गुरुकुल के प्रणेता एवं मुख्य अधिष्ठाता महात्मा मुंशीराम से गुरुकुल मे बम बनाए जाने के अफवाहो की चर्चा भी की। अफवाह निराधार निकली। मुंशीराम जी ने कहा कि गुरुकुल का हर ब्रह्मचारी अपने आप मे एक वैचारिक बम है, समाज सुधारक है और वैदिक विचारधारा से ओतप्रोत है। महात्मा जी से बातचीत कर के बड़े बड़े अंग्रेज़ पदाधिकारी आश्वस्त हुए कि गुरुकुल मे नई शिक्षा प्रणाली मैकॉले प्रणाली का प्रतिउत्तर था और उससे ब्रिटिश सामराज्य का कोई अहित नही होने वाला था। संभवत: यह उनकी भूल थी। गुरुकुल के अनेक स्नातक, विद्यालंकार, वेदालंकार की उपाधियो से विभूषित, न केवल अंग्रेज़ो से लड़ते हुए जेल गए बल्कि निज़ाम हैदराबाद द्वारा आर्य समाजों और शेष हिंदू समाज पर किए जा रहे अत्याचारों के विरोध मे उन्होने आंदोलन किया और कठिनाईंयो को झेलते हुए विजयी हुए।

स्वतंत्रता की लौ जो महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा प्रतपादित वैदिक विचारधारा ने प्रज्ज्वलित की वो आज भी सजीव है। अनेक ऐसे नवयुवक हैं जिन्हे सत्यार्थ प्रकाश ने मानसिक रूप से प्रभावित किया और जो स्वदेश सुरक्षा की वेदी पर स्वयं आहुति बन गए। 1999 के कारगिल युद्ध में ऐसे बलिदान हो जाने वाले नवयुवको मे पहले थे कैप्टन सौरव कालिया। वो डी ए वी विद्यालय पालमपुर हिमाचल प्रदेश के विद्यार्थी थे और जब पाकिस्तानी सेना ने क्रूरता से उनकी हत्या की और शरीर क्षत विक्षत किया तो भी उन्होने उफ नही किया और न ही की क्षमा याचना। सौरव कालिया के पिता ने इस बलिदान की भावना के पीछे दयानंद विद्यालय में पाई शिक्षा को श्रेय दिया।

लैफ्टेनिंट मनोज पांडेय ने खालूबार की दुर्गम चोटियों पर दुश्मन से युद्ध करते हुए अपने जीवन की चिंता नहीं की। जवानो का मनोबल बढ़ाते हुए शत्रु की गोलियों को शरीर पर सहन करते हुए वो आगे बढ़ते रहे और आखिर मे उस स्थान से शत्रु सेना को खदेड़ कर ही दम लिया। गंभीर घावों के कारण वे वीरगति को प्राप्त हुए। आर्य परिवार मे पले उस नवयुवक का अंतिम संस्कार – संस्कार विधि के अनुसार किया गया । राष्ट्र ने लैफ्टेनिंट मनोज पांडेय को सर्वोच्च वीरता पदक परमवीर चक्र से मरणोपरांत सम्मानित किया।
स्वदेश सुरक्षा, राष्ट्रीय कर्तव्य है। दिन प्रतिदिन हमे सजग रहते की आवश्यकता है। न केवल सशस्त्र सेनाओ को बल्कि पूरे राष्ट्र को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से बलवान बनना है जिससे हम स्वतंत्रता संग्राम की महान परंपरा से पीढ़ी दर पीढ़ी को देश प्रेम की प्रेरणा देते रहें।

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ब्रिगेडियर चितरंजन सावंत, वी.एस.एम
उपवन
609, सेक्टर 29
अरुण विहार
नोएडा – 201 303. भारत
सेलफोन – 0091-9811173590
इमेल – sawantg.chitranjan@gmail.com

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